दानवीर कर्ण | Dan Veer karn !

Date: Fri Dec 09, 2022 10:30AM
© Shubham Nihale
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दानवीर कर्ण | Dan Veer karn !

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कर्ण कुंती का पुत्र था| पाण्डु के साथ कुंती का विवाह होने से पहले ही इसका जन्म हो चुका था| लोक-लज्जा के कारण उसने यह भेद किसी को नहीं बताया और चुपचाप एक पिटारी में रखकर उस शिशु को अश्व नाम की नदी में फेंक दिया था| इसके जन्म की कथा बड़ी विचित्र है|

राजा कुंतिभोज ने कुंती को पाल-पोसकर बड़ा किया था| राजा के यहां एक बार महर्षि दुर्वासा आए| कुंती से उनका बड़ा सत्कार किया और जब तक वे ठहरे, उन्हीं की सेवा-सूश्रुषा में रही| इसकी इस श्रद्धा-भक्ति से प्रसन्न होकर महर्षि ने उसे वार दिया कि वह जिस देवता को मंत्र पढ़कर बुलाएगी वही आ जाएगा और उसको संतान भी प्रदान करेगा| कुंती ने नादानी के कारण महर्षि के वरदान की परीक्षा लेने के लिए सूर्य नारायण का आवाहन किया| बीएस उसी क्षण सूर्यदेव वहां आ गए| उन्हीं के सहवास के कारण कुंती के गर्भ से कर्ण का जन्म हुआ| जब पिटारी में रखकर इस शिशु को उसने फेंक दिया, तो वह पिटारी बहती हुई आगे पहुंची| वहां अधिरथ ने कौतूहलवश उसे उठा लिया और खोलकर देख तो उसमें एक जीवित शिशु देखकर वह आश्चर्य करने लगा|

अधिरथ उस शिशु की निरीह अवस्था पर करुणा करके उसे अपने घर ले आया और उसका पालन-पोषण करने लगा| उसने उसे अपनी संतान समझा| बालक के शरीर पर कवच-कुण्डल देखकर उसको और भी अधिक आश्चर्य हुआ और तभी उसे लगा कि वह बालक कोई होनहार राजकुमार है| उसने उसका नाम वसुषेण रखा| वसु का अर्थ है धन| कवच, कुण्डल रूपी धन उसके पास था| विधाता ने ही उसको इसे दिया था, इसलिए उसका नाम वसुषेण उचित ही था|

वसुषेण जब कुछ बड़ा हुआ, तो उसने शास्त्रों का अध्ययन करना आरंभ कर दिया| वह सूर्य का उपासक था| प्रात:काल से लेकर संध्या तक वह सूर्य की उपासना ही किया करता था| दानी भी बहुत बड़ा था| उपासना के समय कोई भी आकर उससे जो कुछ भी मांगता, वह बिना हिचकिचाए उसको दे देता था| अमूल्य से अमूल्य वस्तु से उसको मोह नहीं था| उसका गौरव तो दानवीर कहलाने में था और अपने कृत्यों से उसने वास्तव में यह सिद्ध भी कर दिया कि वह दानवीर था| उसके समान दानी कौरवों और पाण्डवों में और कोई नहीं था| उसका परिचय तो हमें उस समय मिलता है, जब इंद्र ब्राह्मण का वेश धारण करके उसके पास उसकी अमूल्य निधि कवच-कुण्डल मांगने गया था| उस समय कर्ण ने देवराज का स्वागत किया था और सहर्ष अपने कवच-कुण्डल उतारकर दे दिए थे|

दान करते समय अपने हित या अहित विचार वह नहीं करता था| यद्यपि सूर्य भगवान पहले उसे मना कर चुके थे कि वह इन कवच-कुण्डलों को किसी को भी न दे, लेकिन दानवीर कर्ण किसी याचक को निराश करके वापस लौटाना तो जानता ही नहीं था| कर्ण के इस साहस के कारण ही उसका नाम वैकर्तन पड़ा था| यदि इस कवच-कुण्डलों को वह नहीं देता तो कोई भी योद्धा उसे युद्ध में परास्त नहीं कर सकता था| इंद्र ने अर्जुन के हित के लिए ही इनको मांगा था, क्योंकि इनके बिना अर्जुन कभी भी उसे नहीं हरा सकता था| फिर भी उसके इस अद्वितीय गुण से प्रभावित होकर इंद्र ने उसको एक पुरुषघातिनी अमोघ शक्ति दी| उस शक्ति से सामने का योद्धा किसी भी हालत में जीवित नहीं बच सकता था और उसको कर्ण ने अर्जुन के लिए रखा था, लेकिन श्रीकृष्ण ने चाल चली और कर्ण की उस शक्ति को घटोत्कच पर चलवाकर अर्जुन के जीवन पर आए इस खतरे को सदा के लिए मिटा दिया|

घटोत्कच, जो आकाश में विचरण करके कौरवों पर अग्नि की वर्षा कर रहा था और जिसने एक बार तो सारी सेना को पूरी तरह विचलित कर डाला था, शक्ति लगते ही निर्जीव होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा|

धनुर्विद्या में कर्ण अर्जुन के समान ही कुशल था| एक बार जब महाराज धृतराष्ट्र की आज्ञा से कौरव-पाण्डवों की अस्त्र-शिक्षा की परीक्षा के लिए एक समारोह किया गया था, तो अर्जुन ने अपने अस्त्र-शिक्षा के कौशल से सबको चकित कर दिया था| उसने ऐसी-ऐसी क्रियाएं कर दिखाई थीं| कि किसी भी योद्धा की हिम्मत नहीं होती थी कि उसका जवाब दे सके| एक विजेता की तरह के कौशल दिखाकर वह प्रशंसा लूट रहा था| दुर्योधन उस समय हत्प्रभ-सा होकर चुपचाप बैठा था| अर्जुन का-सा कौशल दिखाना उसके सामर्थ्य के भी बाहर था| उसी समय कर्ण वहां आ पहुंचा और उसने मैदान में आकर अर्जुन को ललकारा, "अर्जुन ! जिस कौशल के बल पर तू यहां सबको चकित कर रहा है और सभी से प्रशंसा लूट रहा रहा है, उसे मैं भी करके दिखा सकता हूं|"

यह कहकर उसने धनुष पर बाण चढ़ाकर वही सबकुछ कर दिखाया, जो अर्जुन ने किया था| चारों ओर से कर्ण की जय-जयकार होने लगी| दुर्योधन का चेहरा अर्जुन के प्रतिद्वंद्वी को देखकर खिल उठा| उसने उसे हृदय से लगा दिया| उसने उसे अर्जुन के साथ द्वंद्व युद्ध करने के लिए प्रेरित किया| दुर्योधन की बात मानकर उसने अर्जुन को इसके लिए चुनौती दी| अर्जुन द्वंद

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